लाल कृष्ण आडवानी : भारत रत्न

उज्जैन टाइम्स ब्यूरो
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आडवाणी एक अलग वट वृक्ष


यह 28 अक्तूबर 2011 को स्वदेश समाचार पत्र में आडवाणी जी पर केंद्रित विशेषांक के लिए लिखा था।


आडवाणी राजनीति का अथक रथी


भारतीय राजनीति में कम ही नेताओं ने अपनी ऐसी छाप छोड़ी है जैसे कि लाल कृष्ण आडवाणी ने. साठ साल से भी अधिक समय सक्रिय राजनीति में लगाने वाले आडवाणी का राजनीति में योगदान जितना आंका जाए कम ही प्रतीत होगा. लेकिन कोई अगर पूछे कि आडवाणी के योगदान को कम से कम शब्दों में बताया जाए तो मैं इतना ही कहूंगा कि भारतीय राजनीति को दो ध्रुवी बनाना आडवाणी की सबसे बड़ी उपलब्धि है.

 

याद करें वो दौर जब देश की स्वतंत्रता के पश्चात भारतीय राजनीति में कांग्रेस का बोलबाला था. यही वह समय था जब जनसंघ के माध्यम से लाल कृष्ण आडवाणी ने राजनीति में कदम रखा. एक मज़बूत कांग्रेस के खिलाफ़ धीरे-धीरे ही सही लेकिन अंत में एक मज़बूत विकल्प बनाना, ये आडवाणी की राजनीतिक जीवन यात्रा का सार है. इस यात्रा में उनके मित्र, वरिष्ठ और मार्गदर्शक की भूमिका निभाई अटल बिहारी वाजपेयी ने. कटु सत्य यही है कि ज्येष्ठ और जन लोकप्रिय नेता होने के नाते वाजपेयी हमेशा आडवाणी से दो कदम आगे रहे. लेकिन खुद वाजपेयी भी हमेशा कहते रहे कि बिना आडवाणी के वो पहले जनसंघ और बाद में भारतीय जनता पार्टी को उन ऊंचाइयों तक नहीं पहुंचा सकते थे जिन पर आज वो दिखाई देती है.

 

वाजपेयी और आडवाणी

 

आडवाणी स्वयं यह कहते रहे हैं कि वाजपेयी जैसे ओजस्वी वक्ता के समक्ष उन्हें हीन भावना होती थी. लेकिन दोनों ने अपनी-अपनी ज़िम्मेदारियों को बखूबी निभाया. जहां अटल बिहारी वाजपेयी जनसंघ-बीजेपी का चेहरा बने, वहीं आडवाणी संगठन को बनाने-गढ़ने में जुटे रहे. अटल-आडवाणी की इस जोड़ी ने कदम से कदम मिला कर तमाम सफलताओं-असफलताओं को साथ जीया. इनसे सबक लिया और भारतीय जनता पार्टी को उस मुकाम पर पहुँचाया जहाँ उसके बिना भारतीय राजनीति का इतिहास नहीं लिखा जा सकता.

 

इस तथ्य को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता कि 1995 में स्वयं लाल कृष्ण आडवाणी ने मुंबई में यह घोषणा की थी कि अगर भारतीय जनता पार्टी सत्ता में आती है तो अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री होंगे. यह तब की बात है जब आडवाणी स्वयं को सोमनाथ-अयोध्या रथ यात्रा के माध्यम से एक जन नेता के रूप में स्थापित कर चुके थे. तब वे लोक सभा में विपक्ष के नेता थे. संघ परिवार का पूरा समर्थन आडवाणी को प्राप्त था. वो संघ परिवार के चहेते बन चुके थे क्योंकि उन्होंने परिवार के सबसे प्रिय विषय हिंदुत्व को भारतीय राजनीति के पटल पर स्थापित कर दिया था. उन्होंने धर्मनिरपेक्षता बनाम छद्म धर्मनिरपेक्षता को बखूबी परिभाषित कर बीजेपी को राजनीतिक तौर पर अछूत की श्रेणी से निकाल कर एक बड़े वर्ग की स्वीकार्यता दिलवा दी थी. बल्कि उसके अगले ही वर्ष चुनाव में बीजेपी को कुछ सहयोगी दलों के साथ सरकार बनाने का अवसर भी मिल गया था.

 

खुद आडवाणी ने अपनी किताब माई कंट्री माई लाइफ़ में इस घटना का विस्तार से ज़िक्र किया है. बतौर बीजेपी अध्यक्ष आडवाणी ने जब ये घोषणा की तब कुछ क्षणों के लिए सन्नाटा छा गया लेकिन फिर तालियों की गड़गड़हाट से माहौल गूंज गया. खुद वाजपेयी भी इस घोषणा से हतप्रभ रह गए. इससे पहले कि आडवाणी अपनी बात समाप्त कर अपनी कुर्सी तक जाते वाजपेयी उठ कर खड़े हो गए. उन्होंने माइक अपने हाथों में ले लिया और एक लंबी चुप्पी के बाद कहा बीजेपी चुनाव जीतेगी. हम सरकार बनाएंगे और आडवाणीजी प्रधानमंत्री बनेंगे.” इस पर आडवाणी ने कहाघोषणा हो चुकी है.’ तब वाजपेयी ने मुस्कराते हुए कहातो फिर मैं भी घोषणा करता हूं कि प्रधानमंत्री....’ तो आडवाणी ने उन्हें तुरंत काटते हुए कहाअटलजी ही बनेंगे. इस पर वाजपेयी ने कहाये तो लखनवी अंदाज़ में पहले आप, नहीं पहले आप हो रहा है. इसके बाद दोनों कुछ क्षणों तक एक-दूसरे को देखते रहे और दोनों शीर्ष नेताओं की आँखें नम हो आईं.

 

आडवाणी लिखते हैं कि बाद में वाजपेयी ने उनसे पूछा. ‘क्या घोषणा कर दी आपने? कम से कम मुझसे तो बात करतेइस पर उऩ्होंने जवाब दियाक्या आप मानते अगर हमने आप से पूछा होता?’

 

इस बात पर बहस होती रही है और आगे भी होती रहेगी कि आखिरकार आडवाणी को वाजपेयी का नाम स्वयं ही प्रस्तावित करने की क्या आवश्यकता थी. आडवाणी के करीबी रहे कुछ लोग आज भी उनके इस फैसले पर सवाल उठाते हैं. लेकिन आडवाणी ने वही किया जो उन्हें ठीक लगा. और उसके बाद के उनके निर्णयों पर उनकी इस मनोस्थिति की छाप स्पष्ट दिखाई देती है. एक ऐसा नेता जो एक बार अपना निर्णय करने के बाद उससे पीछे नहीं हटता बल्कि उस पर दृढ़ रहता है. इस घटना और निर्णय का जिक्र मैंने विस्तार से इसलिये किया है क्योंकि मुझे लगता है कि इसके बिना आडवाणी के व्यक्तित्व पर अधिक प्रकाश नहीं डाला जा सकता.

 

ये संयोग ही है कि इस घोषणा के कुछ ही महीनों बाद हवाला कांड में आडवाणी को फंसाया गया और तब उन्होंने इस्तीफा दे कर तब तक लोक सभा आने का एलान किया जब तक उनका नाम इस कांड से बरी नहीं हो जाता. ये जानते हुए भी कि न्यायिक प्रक्रिया में लंबा वक्त लग सकता है. इसीलिए बीजेपी के सामने नेतृत्व का कोई संकट नहीं था क्योंकि कुछ महीनों पहले ही आडवाणी वाजपेयी का नाम बतौर नेता घोषित कर चुके थे. ज़ाहिर है उनकी इस घोषणा का हवाला कांड से कोई संबंध नहीं था.

 

बीजेपी एक विकल्प

 

1984 के चुनाव में सिर्फ़ दो सीटें पाने वाली बीजेपी 1989 के चुनाव में एक बड़ी ताकत बन चुकी थी. लेकिन आडवाणी को ये एहसास था कि बीजेपी को अपने बूते पर सत्ता में आने के लिए बहुत कुछ करना है. बीजेपी की स्वीकार्यता बढ़ाने के लिए उसे मुख्य धारा में लाने के लिए पार्टी की विचारधारा में आमूल-चूल परिवर्तन करना होगा. शाह बाने प्रकरण के समय आडवाणी राष्ट्रीय विमर्श में नई शब्दावली जोड़ चुके थे. तुष्टिकरण और वोटबैंक जैसे जुमले एक बड़े वर्ग का ध्यान अपनी ओर खींचने लगे थे. बीजेपी ने उनके नेतृत्व में 1990 में एक रथ यात्रा निकालने का निर्णय किया. जिसका उद्देश्य अयोध्या में राम मंदिर बनाना था.

 

ये निर्णय सिर्फ आडवाणी बल्कि भारतीय राजनीति के लिए भी एकवॉटरशेड मोमेंटबना. सीमित हिंदू राष्ट्रवाद को व्यापक करना, मंडल आयोग का सिफारिशों से खंडित नज़र रहे हिंदुओं को राम के नाम पर एक करना और बीजेपी के लिए एक ऐसा व्यापक जन मत तैयार करना जो आने वाले वर्षों में राष्ट्रीय राजनीति में उसकी मजबूत बुनियाद बन सके.

 

आलोचक हमेशा ये मानते रहे कि आडवाणी की इस यात्रा ने देश को जोड़ने के बजाए बाँटने का काम किया. उनकी इस रथ यात्रा ने देश में कई जगह सांप्रदायिक हिंसा भड़काई. अल्पसंख्यकों विशेषकर मुसलमानों के मन में भय उत्पन्न किया. इस यात्रा ने पूरे देश में हिंदुत्व का एक ऐसा ज्वार उत्पन्न किया जिसने राष्ट्रीय एकता के लिए एक बड़ा प्रश्न चिन्ह खड़ा कर दिया.

 

हालांकि खुद आडवाणी अपनी पुस्तक माई कंट्री माई लाइफ़ में इन आरोपों की सफाई देते हैं. वो लिखते हैंक्या मेरा अभियान मुस्लिम विरोधी था? कतई नहीं..... मैं अपने विरोधियों को चुनौती देता हूं कि वो मेरे भाषण का कोई हिस्सा दिखाए जिसमें मुस्लिमों या इस्लाम के खिलाफ हो. इसके ठीक उलट जब मैंने अपनी कुछ सभाओं में नारे सुने किजो हिंदू हित की बात करेगा, वही देश पर राज करेगातो मैंने तुरंत उठ कर कहा कि बीजेपी हर भारतीय की नुमाइंदगी करती है चाहे वो हिंदू हो या फिर मुसलमान.’

 

लेकिन करीब डेढ़ दशक से बीजेपी को कवर करने वाले एक संवाददाता की हैसियत से ये प्रश्न मेरे दिमाग में हमेशा आता रहा कि छह दिसंबर 1992 को बाबरी विध्वंस के लिए आडवाणी का पूरा आंदोलन किस हद तक ज़िम्मेदार था. बल्कि भारत उदय यात्रा के समय मैंने उनसे ये प्रश्न पूछा भी था. मैंने उनसे पूछा था कि अगर आपका आंदोलन अयोध्या में भव्य राम मंदिर निर्माण के लिए था तो आप बाबरी मस्जिद का क्या करने वाले थे. मस्जिद के ऊपर तो मंदिर नहीं बनाने जा रहे थे. फिर ऐसे में मस्जिद विध्वंस की भर्त्सना क्यों नहीं करते. आडवाणी छह दिसंबर 1992 को अपने जीवन का सबसे दुखद दिन बताते रहे हैं.

 

चाहे इस आंदोलन ने बीजेपी को राष्ट्रीय राजनीति में एक मजबूत ताकत के रूप में स्थापित किया किंतु इससे मुस्लिम मतदाता हमेशा के लिए बीजेपी से दूर हो गए. बीजेपी को तात्कालिक रूप से आंदोलन से फायदा भी मिला. वो सहयोगियों के साथ तीन बार केंद्र में सत्ता में आने में कामयाब हुई.

 

अब आगे क्या

 

आने वाले वर्षों में बीजेपी के लिए कई चुनौतियां हैं. पार्टी का भौगोलिक और सामाजिक विस्तार थम गया है. हिंदू राष्ट्रवाद की कट्टर विचारधारा ने चाहे पार्टी को कांग्रेस का एक मजबूत विकल्प बना दिया लेकिन उसे अपनी स्वीकार्यता बढ़ाने के लिए अभी बहुत कुछ करना बाकी है. बीजेपी सिर्फ एक प्रतिक्रियावादी बल बन कर राष्ट्रीय विमर्श का हिस्सा नहीं बन सकती बल्कि उसे स्वयं की एक सकारात्मक सोच-कार्यक्रम देश के सामने रखना होगा. बीजेपी से ऐसे लोग जुड़ें जो देश के एक तबके से नफ़रत करते हैं बल्कि इसलिए जुड़ें क्योंकि वो उस देश से प्यार करते हैं जिसका हिस्सा मुसलमान भी हैं. शायद बीजेपी को भी इस बात का एहसास हमेशा रहा कि उग्र हिंदुत्व की छवि के साथ वो देश के सभी तबकों को अपने साथ लेने में कामयाब नहीं हो सकती. इसीलिए बीच-बीच में पार्टी की विचारधारा को बदलने पर अंदर-बाहर मंथन होता रहा है. इसी कड़ी का एक हिस्सा आडवाणी का जिन्ना विवाद भी रहा है.

 

जिन्ना विवाद

 

मैं अगर ऊपर की दो घटनाओँ को आडवाणी के जीवन की महत्वपूर्ण घटनाएँ मानता हूं तो मेरी नज़र में तीसरी बड़ी घटना उनकी पाकिस्तान यात्रा है. आडवाणी स्वयं भी इसे बेहद महत्वपूर्ण मानते हैं और उन्होंने अपनी जीवनी में वहाँ की घटनाओं का विस्तार से ज़िक्र किया है.

 

एक संवाददाता की हैसियत से इस पूरे विवाद को मैंने बेहद नज़दीक से देखा है. अब अगर अपनी स्मृतियों को झंझोड़ कर देखूं तो मुझे लगता है कि आडवाणी की ये बात सही है कि ये पूरा विवाद इलैक्ट्रॉनिक मीडिया की बेसब्री और ख़बरों को तुरत-फुरत परोस देने के रवैये का नतीजा था. आडवाणी सही कहते हैं कि उन्होंने कभी भी जिन्ना को सेक्यूलर नहीं कहा. लेकिन मुझे याद हैं जून 2005 की वो चीखती-चिल्लाती आवाज़ें जो टेलीविज़न के पर्दों से कान-फाड़े सुनाई दे रही थीं: ‘आडवाणी ने कहा जिन्ना सेक्यूलर थे. किसी के पास इतना वक़्त नहीं था कि वो समग्रता में पूरे विषय को देखे.

 

लेकिन इस पूरे मसले पर सफ़ाई देने का फ़ैसला कर आडवाणी ने स्वयं के लिए बड़ी मुसीबत खड़ी कर ली. पार्टी में उनके सहयोगियों और व्यापक संघ परिवार में इस पूरे विवाद की इतनी तीखी प्रतिक्रिया की आशंका शायद उन्हें भी रही हो. आलोचकों ने ये कहना शुरू कर दिया कि आडवाणी इस प्रकरण से अपनी छवि बदलना चाहते हैं और इसीलिए उन्होंने पाकिस्तान की धरती पर जाकर उस व्यक्ति को सेक्यूलर कह दिया जिसने दो राष्ट्र सिद्धांत का प्रतिपादन कर भारत का विभाजन कराया और लाखों बेगुनाह इंसानों का खून बहाया गया.

 

इतिहास गवाह है कि इस विवाद के बावजूद आडवाणी को चाहे शुरुआत में पार्टी अध्यक्ष पद से इस्तीफा देने के लिए मजबूर किया गया लेकिन बाद में उन्हें ही 2009 के चुनाव में बीजेपी और एनडीए की ओर से प्रधानमंत्री पद का दावेदार घोषित किया गया. ये बीजेपी की विकल्पहीनता का सबूत नहीं बल्कि पार्टी के भीतर आडवाणी के कद का परिचायक था.

 

आडवाणी एक अलग वट वृक्ष


राजनीति में कई तरह के वट वृक्ष होते हैं. अधिकांश ऐसे जिनकी छाया में कोई वनस्पति फल-फूल नहीं पाती. इन वट वृक्षों की पत्तियों की सघनता सूर्य की धूप ज़मीन तक नहीं जाने देती. इसकी मज़बूत जड़ें गहराई से पानी निकाल लाती हैं और दूसरे पेड़-पौधों के पनपने के लिए कुछ नहीं छोड़तीं.

 

भारतीय राजनीति में लाल कृष्ण आडवाणी एक भिन्न प्रकार के वट वृक्ष हैं. पार्टी की कमान संभालते हुए उनके बारे में हमेशा कहा गया कि वे दूसरे नेताओं के लिए काफी स्थान छोड़ते हैं. सबकी सुनते हैं. उनकी छाया के नीचे कइयों को फलने-फूलने का अवसर मिला. आज बीजेपी में जिसे दूसरी पीढ़ी कहा जाता है वो पार्टी को आडवाणी की ही देन है. वो ऐसे बरगद नहीं थे जिसके नीचे कोई पनप नहीं पाया.

 

लेकिन अब जबकि आडवाणी अपने जीवन के सांध्य काल में हैं उनके बारे में कई तरह के प्रश्न खड़े किए जा रहे हैं. ऐसा माना जा रहा है कि आडवाणी अब भी अपनी विरासत किसी को सौंपना नहीं चाहते बल्कि वो स्वयं ही अब भी अपनेआप को प्रधानमंत्री पद की दौड़ में बनाए रखना चाहते हैं. जिन नेताओं को उन्होंने अपने हाथों से बना-संवार कर खड़ा किया है उन्हीं के मन में आडवाणी की महत्वाकांक्षाओँ को लेकर संशय बना हुआ है.

 

इन बातों में कुछ हद तक सच्चाई ज़रूर है. लेकिन मुझे इस बात का एहसास हमेशा रहा है कि व्यक्तिगत तौर पर आडवाणी को जितना ग़लत समझा गया है उतना शायद किसी और राजनेता को नहीं. 2009 की हार के बाद उन्होंने स्वयं ही इस बात की घोषणा की थी कि वो अब लोक सभा में नेता विपक्ष नहीं रहेंगे बल्कि दूसरी पीढ़ी के नेताओँ को कमान सौंपी जाएगी. इसी के बाद लोक सभा और राज्य सभा में दूसरी पीढ़ी के दो चेहरों को बीजेपी का चेहरा बनाया गया. ये भी कहा गया था कि आडवाणी अब पार्टी के मार्गदर्शक की भूमिका निभाएंगे.

 

हाल में उनकी जन चेतना यात्रा के बाद से ये प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि क्या आडवाणी अब भी स्वयं को प्रधानमंत्री पद की दौड़ में बनाए रखना चाहते हैं. इस प्रश्न का उत्तर वो दे चुके हैं कि इस बारे में पार्टी ही फैसला करेगी. लेकिन इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि अगर बीजेपी को अपने सहयोगियों के साथ केंद्र में सरकार बनाने का अवसर मिला तो आडवाणी एक मज़बूत उम्मीदवार के तौर पर अब भी उभर सकते हैं. लेकिन तब ये निर्णय भी उन्हें ही करना होगा कि 1995 की तरह वो पार्टी में किसी दूसरे अटल बिहारी वाजपेयी का नाम आगे बढ़ाएँगे या फिर खुद ही कमान संभालने के लिए मैदान में उतर जाएंगे.

 

अखिलेश शर्मा (लेखक एनडीटीवी में एसोसिएट एडीटर पॉलिटकल हैं. लेख में व्यक्त विचार उनके निजी हैं)